Wednesday, December 18, 2013

इक दोस्ती की कहानी





रोज़ सुबह उठाने वाला, सुख-दुःख में गले लगाने वाला, एक भाई मेरे साथ रहता था,
हॉस्टल की दंगल में साथ देते, हमेशा मुझ से यह कहता था- 
"छोड़ेंगे नहीं उन्हें, साथ में निपटेंगे... दोनों साथ तो कोई क्या बिगाड़ लेंगे!
 पढाई हो या दुनियादारी, साथ सभी झंडे हम गाढ़ लेंगे!"

मुझे कोई पसंद आई, तो ज़िम्मा वह खुद उठा लेता, 
बाइक नहीं, बैलन्स नहीं, कुछ भी हो सँभाल लेता... 
मेरी जान बसती उस में, झगड़े कभी तो रो देता, 
दोनों के घरवाले हमेशा कहते, " बेटे उसको भी घर बुला लेता?"

चाहत थी, लगन थी, आँखों में दोनों के सपने थे,
और आँखों में आशाएँ ले के, बैठे हमारे कुछ अपने थे... 
मैं तो कभी डर जाता, पर दिलासा कहीं से आ जाता, 
फिर डर को उसकी भी आँखों में खोजता, वह मुड़कर कहीं चला जाता..


एक दिन वह घडी आई, इम्तेहान के बाद की वह कड़ी आई, 
अपने नाम-नंबर खोजने, कॉलेज के बाहर एक भीड़ आई- 
"किस को क्या मिला, मुझे कुछ मिला या नहीं..." 
मैंने पहले एक फ़ोन लगाया, "यार, तू आता है या नहीं!!"

"आऊंगा, बाद में", मेरा मन सुनकर उदास सा हुआ, 
फिर भी एडमिशन की आस से, नाम ढूँढने मैं आगे बढ़ा. 
आँखें मेरी खोजती रहीं, पर नाम अपना नहीं दिखा, 
हताश हुआ ज़रा सा मैं, फिर भी मैंने दिल रखा...


उसका नाम खोजने लगा, क्या उसे भी प्रवेश नहीं मिला? 
तभी जा के नज़र पडी, एक 'आरक्षित सीट' था उसे मिला... 
मैं खुश था उसके लिए, उसके भविष्य और सपने के लिए, 
पर वह बात मन में घर कर गयी, लफ्ज़ नहीं थे कहने के लिए!

मुड के देखा, कुछ दूरी पे, भीड़ में कहीं वह दिखाई दिया, 
आँखों से मानो कुछ कहा उसने, अपनी चुप्पी से शायद वह कुछ कह गया... 
मैं पूछूं या ना पूछूं, मेरे पैर लडखडा रहे थे, 
वह नज़दीक आया, कुछ  बोला, उसके भी होंठ कपकपा रहे थे..

"ज़रुरत थी, क्या करता, जो मिले, कैसे छोड़ता.." 
"ज़रुरत तो दोस्त मुझे भी थी, एक बार मुझ से बात तो छेड़ता..
" फिर हवा चली, हम चुप रहे... 
कुछ लम्हों की यादें आई, हम चुप रहे...

नम आँखों ने माँफी माँगी, 
नम आँखों ने माँफ कर दिया, 
दुनिया तूने अपने दाव खेलकर 
एक और दोस्ती पे वार कर दिया!!

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