Tuesday, December 31, 2013

भूत-वाचा


"मंगलम् भगवान विष्णु!",  मंत्र पढ़े जा रहे थे,
एक इन्सान और एक प्रेत के कदम, अग्नि के गिर्द बढ़े जा रहे थे l
प्रेत को सुन्दर सजाया गया था, गहनों और फूलों से रिझाया गया था,
यह मंगल दृश्य देखने, देव-देवताओं को बुलाया गया था l
अग्नि के सात फेरे लेते, तलवे प्रेत के जल रहे थे,
ह्रदय कब का मर गया था, बस कानों में भूत बोल रहे थे l
आज वह दुल्हन थी, एक अंजान मर्द की....
ज्ञात थी उसको भूत की बातें, और याद थी अपने फ़र्ज़ की...
'दान' कर रहा था उसे जो, वह वहीँ था
'जिस'की वह होने जा रही थी, वह भी वहीँ था
एक मर्द... हाथ में चाबुक लिए, सेहरे में से हॅस रहा था
और वही जो उसे पीटता था, सामने खड़ा अब देख रहा था
महल में बिठाऊंगा, रानी तुम्हें बनाऊंगा, सब बातें उसने कही थी,
फिर क्यों होती घुटन उसे, फूलों की माला वो फांसी तो नहीं थी!

जब रात हुई, कमरा बंद हुआ, फूल सुगंध महकाने लगे,
पर भूत के भूत उसके इर्द-गिर्द घूम के उसको बहकाने लगे...
मेहँदी के नीचे से जले के निशान, रात की बत्ती में चमकने लगे थे..
पुराने खरोज ढल गये थे मगर, अचानक कहीं से उभरने लगे थे...
"बोलो उसको...तुम प्रेत हो...मृत हो...", भूत दोहराने लगा...
"शरीर हो केवल तुम...." भूत ठहाके लगाने लगा...
एक घर में एक लड़की है, और वह प्रेत नहीं, इन्सान है
उम्र छोटी सी है उसकी पर ना हैवानियत से वो अंजान है
बड़ों की गुफ्तगू, रातों की बातें, अब काफी वह जानती है,
क्यों भगवान से हर बात की मांफी वह माँगती है..?
फटकारें पड़तीं कभी उसको, कभी जली सिगरेट के छाले,
कभी बेल्ट के फटके पड़ते, कभी बंद करते ताले!
भूत वहीँ जनते हैं....और देखते हैं.....
प्रेतों को दुल्हनें और दुल्हनों को प्रेत बनते!

Thursday, December 19, 2013

अंधे की दुनिया



देखी ना मैंने रंग-बहार, ना देखी कभी सूरज की धूप,
प्रकाश किरण से रहा वंचित, जीता हूँ मैं अंध-स्वरुप l
बस मन से ही देख लिया, जो सुना, जो महसूस किया,
आँखें उदास रहीं मुझ पे, पर दिल ने ना कभी अफ़सोस किया

एक उजाले की खोज है, दिल में चैन नहीं रहताl
सच में अँधेरा छाये तो भी 'डरने' का डर नहीं रहताl
नींद भी अँधेरा, जागूँ तो अँधेरा, रात-दिन बीतते जाते हैं,
अँधा हूँ- बेजान नहीं हूँ, मुझको भी सपने आते हैं!
फूल पहचानूँ खुशबू से, झरना ध्वनि झरझर से,
हर पल दिल एक ख्वाब बुनता, "काश...देख पाऊँ मैं कल से"!

हम एक बदनसीब हैं जो अँधेरे के घूँट पीते हैं,
और एक वो अज्ञानी कीड़े, जो अन्धकार में जीते हैंl
जो देखकर अनदेखा करते, सत्य के गर्भार्थ को,
श्राप का रूप जो देते हैं, 'सोच' के वरदान को!

अरे अंधी आँखें नहीं, अँधा तो मन होता है;
ऐसी दृष्टि किस काम की, सच जिससे भिन्न होता हैl
खुदा, मेरे अंधेपन से "घृणस्पद " यह अन्धकार हैl
ऐसे अज्ञात जगत पे मुझे धिक्कार है, धिक्कार है,
ऐसे अज्ञात जगत पे मुझे धिक्कार है, धिक्कार है!

Wednesday, December 18, 2013

इक दोस्ती की कहानी





रोज़ सुबह उठाने वाला, सुख-दुःख में गले लगाने वाला, एक भाई मेरे साथ रहता था,
हॉस्टल की दंगल में साथ देते, हमेशा मुझ से यह कहता था- 
"छोड़ेंगे नहीं उन्हें, साथ में निपटेंगे... दोनों साथ तो कोई क्या बिगाड़ लेंगे!
 पढाई हो या दुनियादारी, साथ सभी झंडे हम गाढ़ लेंगे!"

मुझे कोई पसंद आई, तो ज़िम्मा वह खुद उठा लेता, 
बाइक नहीं, बैलन्स नहीं, कुछ भी हो सँभाल लेता... 
मेरी जान बसती उस में, झगड़े कभी तो रो देता, 
दोनों के घरवाले हमेशा कहते, " बेटे उसको भी घर बुला लेता?"

चाहत थी, लगन थी, आँखों में दोनों के सपने थे,
और आँखों में आशाएँ ले के, बैठे हमारे कुछ अपने थे... 
मैं तो कभी डर जाता, पर दिलासा कहीं से आ जाता, 
फिर डर को उसकी भी आँखों में खोजता, वह मुड़कर कहीं चला जाता..


एक दिन वह घडी आई, इम्तेहान के बाद की वह कड़ी आई, 
अपने नाम-नंबर खोजने, कॉलेज के बाहर एक भीड़ आई- 
"किस को क्या मिला, मुझे कुछ मिला या नहीं..." 
मैंने पहले एक फ़ोन लगाया, "यार, तू आता है या नहीं!!"

"आऊंगा, बाद में", मेरा मन सुनकर उदास सा हुआ, 
फिर भी एडमिशन की आस से, नाम ढूँढने मैं आगे बढ़ा. 
आँखें मेरी खोजती रहीं, पर नाम अपना नहीं दिखा, 
हताश हुआ ज़रा सा मैं, फिर भी मैंने दिल रखा...


उसका नाम खोजने लगा, क्या उसे भी प्रवेश नहीं मिला? 
तभी जा के नज़र पडी, एक 'आरक्षित सीट' था उसे मिला... 
मैं खुश था उसके लिए, उसके भविष्य और सपने के लिए, 
पर वह बात मन में घर कर गयी, लफ्ज़ नहीं थे कहने के लिए!

मुड के देखा, कुछ दूरी पे, भीड़ में कहीं वह दिखाई दिया, 
आँखों से मानो कुछ कहा उसने, अपनी चुप्पी से शायद वह कुछ कह गया... 
मैं पूछूं या ना पूछूं, मेरे पैर लडखडा रहे थे, 
वह नज़दीक आया, कुछ  बोला, उसके भी होंठ कपकपा रहे थे..

"ज़रुरत थी, क्या करता, जो मिले, कैसे छोड़ता.." 
"ज़रुरत तो दोस्त मुझे भी थी, एक बार मुझ से बात तो छेड़ता..
" फिर हवा चली, हम चुप रहे... 
कुछ लम्हों की यादें आई, हम चुप रहे...

नम आँखों ने माँफी माँगी, 
नम आँखों ने माँफ कर दिया, 
दुनिया तूने अपने दाव खेलकर 
एक और दोस्ती पे वार कर दिया!!